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धर्म और राजनीति / राजीव रंजन प्रसाद

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अशांत थे भीष्म
मन के हिमखंडों से
पिघल-पिघल पड़े, गंगा से विचार..
कि कृष्ण! यदि आज तुम प्रहार कर देते
तो क्या इतिहास फिर भी तुम्हें ईश्वर कहता?
रथ का वह पहिया उठा कर, बेबस मानव से तुम
धर्म-अधर्म की व्याख्याओं से परे
यह क्या करने को आतुर थे?
स्तंभ नोचती बिल्ली के सदृश्य?
तुम जानते थे कि अर्जुन का वध मैं नहीं करूँगा
तुम्हारा गीताज्ञान आत्मसात करने के बावजूद..
तुम यह भी जानते थे कि दुनिया का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर
ऐसी किसी भी प्रतिज्ञा से बाध्य नहीं था
तब मेरे अनन्यतम आराध्य
तुम्हारी अपनी ही व्याख्याओं पर प्रश्नचिन्ह क्यों?

मैं विजेता था उस क्षण
मेरे किसी वाण के उत्तर अर्जुन के तरकश में नहीं थे
तुम्हारा रथ और ध्वज भी मैनें क्षत-विक्षत किया था
और मेरा कोई भी वार धर्मसम्मत युद्ध की परिभाषाओं से परे नहीं था।
फिर किस लिए केशव तुमने मुझे महानता का वह क्षण दिया
जहाँ मैं तुमसे उँचा, तुम्हारे ही सम्मुख “करबद्ध” था?
मैंने तुम्हें बचाया है कृष्ण
और व्यथित हूँ
धर्म अब मेरी समझ के परे है
अब सोचता हूँ कि दुर्योधन ने तुम्हें माँगा होता, न कि तुम्हारी सेना
तो क्या द्वेष के इस महायुद्ध का खलनायक युधिष्ठिर होता?

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:..
तब तुम ही आते हो न धर्म की पुनर्स्थापना के लिये?
तो क्या किसी भी कीमत पर विजय, धर्म है?
तुम क्या स्थापित करने चले हो यशोदा-नंदन
सोचो कि तुमने मुझे वह चक्र दे मारा होता
और मैने हर्षित हो वरण किया होता मृत्यु का
स्वेच्छा से..
तो भगवन, सिर्फ एक राजा कहलाते तुम
और इतिहास अर्जुन को दिये तुम्हारे उपदेशों पर से
रक्त से धब्बे नहीं धोता।
तुम्हारी इस धरती को आवश्यकता है कृष्ण
पुनर्निमाण को हमेशा भगवान चाहिये
और इसके लिये इनसान बलिदान चाहिये

अब तुमने जीवन की इच्छा हर ली है
शिखंडी का रहस्य फिर तुम्हारे मित्र को सर्वश्रेष्ठ कर देगा
मुझे मुक्ति, लम्बा सफर देगा
मन का यह बोझ सालता रहेगा फिर भी
कि धर्म और राजनीति क्या चेहरे हैं दो
चरित्र एक ही?

22.04.2007