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धर्म का डण्डा / रणविजय सिंह सत्यकेतु

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रंग-बिरंगी पताकाओं से आँखें चौन्धियाती हैं
उनमें लगे डण्डों को देखकर देह काँपती है
उनके नीचे और पीछे लग रहे नारों से
फटने लगते हैं कान के परदे
दहशत से बढ़ जाती हैं धड़कनें
गांव-गांव
शहर-शहर
बँटते हैं पर्चे
गूँजते हैं धर्मादेश
तो बन्द हो जाते हैं हाट-बाज़ार
खेतों की राह भूल जाते हैं हल-बैल
थम जाते हैं खदानों में हाथ
तालों के हवाले हो जाते हैं स्कूल-कॉलेज ।
बचपने में पढ़ी थी
सम्वेदनाओं से भरी धर्म पुस्तकें
चरित्रों से टपकते थे आदर्श
आज उन्हीं चरित्रों के नाम पर
मची है मार-काट
हुहकार रही हैं धर्म पताकाएँ ....
धर्म के बाज़ार में खड़े नंगों से
बचानी होंगी पीढ़ियाँ
जो तोड़ सकें उनके वहशी डण्डे
सहेज सकें टूटी-बिखरी सम्वेदनाएँ ।