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धुनों की पकड़... / पंखुरी सिन्हा

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धुनें अभी पूरी तरह पकड़ में नहीं आई थीं,
और संगीत किसी बच्चे की गेंद की तरह फिसलता जाता था,

मुट्ठियों से, उँगलियों की दरारों से,
और विदेशी संगीत तिरता आ रहा था,

खुले रोशनदानों से, खुली खिड़कियों से,

लोगों की गाड़ियों से,
मकान-मालकिन के टी०वी० और रेडियो से,
और अधूरी-अधूरी थीं चिट्ठियाँ सारी,
लिखकर भेज दी गईं भी,
अत्यन्त प्रिय जनों को ।