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न जाने क्या हुआ उसको क़लम कर दी ज़बां मेरी / कांतिमोहन 'सोज़'

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न जाने क्या हुआ उसको क़लम कर दी ज़बां मेरी ।
उसे भी ख़ामुशी साबित हुई राहतरसां मेरी ।।

मिटा दे तूतियों को अंजुमों को आबशारों को
वगरना लाज़िमी सुनना पड़ेगी दास्तां मेरी ।

ज़मीं के ज़र्रे-ज़र्रे में नुमायां है मेरा जौहर
मैं खुद हैरान हूँ इस दरजा क़ूवत थी कहाँ मेरी ।

गुलों में बुलबुलों में कोह में मौजों में दरिया में
ग़रज़ हर शै में है पिन्हां हयाते-जावेदां मेरी ।

यहाँ शम्सो-क़मर शामो-सहर रक़्सां हैं हर लम्हा
किसी को चैन लेने ही नहीं देती फुग़ां मेरी ।

वो शबनम हो कि गुल हो याकि बुलबुल का तरन्नुम हो
चमन में कौन सी शै है नहीं जो राज़दां मेरी ।

समुन्दर पर इजारा करनेवालों ये भी देखा है
मुसलसल रेत के दरिया में है कश्ती रवां मेरी ।

मुझे इस हाल में करके तुम्हें कुछ तो हिजाब आया
तुम्हें मलबूस आखिर दे गईं उरियानियां मेरी ।

मेरी शीरींज़बानी से भी होती है खलिश तुमको
अभी देखी कहाँ है तल्ख़िये-तर्ज़े-बयां मेरी ।

समझ पाओ कभी जो सोज़ को नादिम न हो जाना
क़लम से अर्ज़ करने में भी कटती थी ज़बां मेरी ।।

12 अप्रैल 1987