भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

न सोज़ आह में मिरी, न साज़ है दिल में / सरवर आलम राज 'सरवर'

Kavita Kosh से
Shrddha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:23, 10 जून 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सरवर आलम राज़ 'सरवर' |संग्रह= }} {{KKCatGhazal}} <poem> न सोज़ आह …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

न सोज़ आह में मिरी, न साज़ है दिल में
मैं लाऊँ कौन सी सौग़ात<ref>उपहार</ref> तेरी महफ़िल में ?

मैं आईना हूँ कि आईना-रू <ref>आईना जैसा</ref>नहीं मालूम
ये वक़्त आया है इस आशिक़ी की मंज़िल में

ख़ुदी कहूँ कि इसे बेख़ुदी बताओ तुम
मैं अपने आप चला आया कू-ए-क़ातिल में

हमारे ज़ब्त ने रख्खा भरम ख़ुदाई का
ज़बां पे आ ही गई थी जो बात थी दिल में

न अपने दिल की कहो तुम ,न दूसरों की सुनो
अजीब रंग यह देखा तुम्हारी महफ़िल में

हरम के हैं ये शनासा<ref>जाना-पहचाना</ref>, न दैर से वाकि़फ़
रखा है क्या भला इन मुफ़्तियान-ए-कामिल<ref>पूरा मुफ़्ती</ref> में?

यक़ीं गुमान में बदला ,गुमां अक़ीदे<ref>श्रद्धा/विश्वास</ref> में
हमें तो बस ये मिला तेरे ख़ाना-ए-गिल<ref>(मिट्टी का घर),ये दुनिया</ref> में

फ़राज़-ए-इश्क़ ने इस मर्तबे को पहुँचाया
रहा न फ़र्क़ कोई राह और मंज़िल में

ख़रोश-ए-मौजा-ए-तूफ़ां ने लाख दावत दी
उलझ के रह गये लेकिन फ़रेब-ए-साहिल में

अभी मिला भी न था हसरतों से छुटकारा
उम्मीद डाल गई आ के और मुश्किल में

कोई मुझे ’सरवर’ ! कहे न दीवाना
शुमार मुझको करो आशिक़ान-ए-कामिल<ref>पूरा आशिक़</ref> में !

शब्दार्थ
<references/>