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नदियाँ / कुमार विक्रम

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कहते हैं सभ्यताएँ नदियों के किनारे बसती हैं
लेकिन मुझे तलाश है एक नदी की
जो सभ्यताओं के सहारे टिकी हो
मेरा नदियों से ख़ास कोई रिश्ता नहीं रहा है
न तैराक बन पाया, न ही प्रकृति प्रेमी
किताबों से, आस-पास से एकत्रित जानकारियों से
यह समझता हूँ कि मेरी प्यास बुझाने को
कहीं न कहीं किसी न किसी नदी का जल ही
मुझतक चलकर पहुँचता है
और यह इल्म कि नदियों की मेहनत को
बस यूँ ही गौण मानकर चलना
न जाने कितनी सभ्यताओं के
प्यास से छटपटा कर
ग़ुम हो जाने का कारण बनता रहा है
मुझे सालता रहता है
 
क्यूंकि नदियाँ पहाड़ नहीं हैं
जो बस अपनी जगह टिके रहते हैं
अपनी ऊंचाई से ही अभिभूत
जिनसे मिलने और संवाद के लिए
उनके घर चलकर जाना होता है
जबकि नदियाँ
पहाड़ो के सामाजिक दायित्वों को निभाने
दर-दर, शहर-शहर, गाँव- गाँव
पहुँचती रहती हैं
 
नदियाँ सूरज भी नहीं
अपने तेज और दूरी से ही
खुद में यूँ खोया हुआ
मानो रौशनी बिखेरना
कोई दफ्तरी धर्म हो
जिसे बिना किसी राग और द्वेष के
समान भाव से पूर्ण करने का स्वांग
करना होता है
जबकि अंधकार का साम्राज्य
दिन-प्रति-दिन, रात-प्रति-रात
उसके नाकों तले सशक्त होता रहता है
 
नदियाँ हवा भी नहीं हैं
निराकार, निर्विकार और
स्पर्श की अनुभूति से ही
अपनी सरूपता दर्शाती हुई
जिसके बगैर
जीवन की कल्पना असंभव तो है
मगर जिससे कोई
उतना ही निरपेक्ष रहता है
जितना कोई अपने आनुवांशिक तत्व से होता है
और जिसकी अनुपस्थिति का अनुभव
संग्रह करना सर्वथा असंभव होता है
 
शायद सभी प्राकृतिक उपहारों में
नदियों को ही सबसे मानुषिक,
अतः सबसे दुरूह कार्य सौंपा गया है
जिन्हें अर्धनिर्मित मानवों के
गुणों और अवगुणों से निबटना होता है
उनके नैसर्गिक प्यास के साथ-साथ
उनके छल-कपट, विष, मल
आदि भी ढोना होता है
और इस तरह नदियों को बनना होता है
मध्य की एक कड़ी
अर्ध-मानव, अर्ध-प्राकृतिक
कुछ-कुछ उन स्त्रियों की तरह
जिनके नाम उन्हें दिए गए हैं
जिनके लिए माँ, मैया जैसे सम्बोधनों को
गढ़ना बड़ा आसान है
पर जिनके एक तरफा मातृक स्नेह
के बोझ को समझने के लिए
जल के उन बूँद बूँद में भीगना है
जिनसे हमारे शरीर की,
पाँव तले ज़मीन की
बुनावट है।
 
‘उद्भावना‘ 2015