भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नदी का बहना मुझमें हो / शिव बहादुर सिंह भदौरिया

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:52, 19 अक्टूबर 2009 का अवतरण ("नदी का बहना मुझमें हो / शिव बहादुर सिंह भदौरिया" सुरक्षित कर दिया ([edit=sysop] (indefinite) [move=sysop] (indefinite)))

यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेरी कोशिश है कि-
नदी का बहना मुझमें हो।

तट से सटे कछार घने हों,
जगह-जगह पर घाट बने हों,

टीलों पर मन्दिर हों जिनमें-
स्वर के विविध वितान तने हों;

मीड़-मूर्च्छनाओं का-
उठना-गिरना मुझमें हो।

जो भी प्यास पकड़ ले कगरी,
भर ले जाए ख़ाली गगरी,
छूकर तीर उदास न लौटॆं-
हिरन कि गाय कि बाघ कि बकरी,

मच्छ मगर घड़ियाल-
सभी का रहना मुझमें हो।

मैं न रुकूँ संग्रह के घर में,
धार रहे मेरे तेवर में,
मेरा बदन काटकर नहरें-
ले जाएँ पानी ऊपर में;
जहाँ कहीं हो,
बंजरपन का मरना मुझमें हो।