भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नदी तानाशाह थी / राजेश श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
Mani Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:13, 10 जून 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राजेश श्रीवास्तव }} {{KKCatNavgeet}} <poem>धरती ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

धरती के हर सूखे टुकड़े को
तबाह करने की चाह थी
एक समय था जब नदी तानाशाह थी।

फिर परिधियों में
बांध दिए गए विस्तार
बांधों ने दे दिए किनारों को आकार
मगर अपनी सीमाओं में ही रहे
तो भला फिर नदी उसको कौन कहे


यूं तो शीतल-शीतल लगे मगर
निश्चि त ही भीतर दबी एक दाह थी
एक समय था जब नदी तानाशाह थी।


सदियों की मौन पीड़ा से
विद्रोही बनी होगी
खूब खौली होगी तब जाकर कहीं उफनी होगी
चाहे घटी कभी, चाहे बढ़ती रही
बांधों से नदी हमेशा लड़ती रही


अपने उफान, अपने तूफान
अपनी नाव और अपनी मल्लानह थी,
एक समय था जब नदी तानाशाह थी।