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नन्हीं सी बच्ची / रजनी अनुरागी

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आज भी मन के किसी कोने में
एक नन्हीं सी बच्ची मुस्कराती है
पास आके बैठ जाती है
आंखों से आंखें मिलाती है
मैं आंखें झुका लेती हूं
वो आँखें उठाती है

आँखों से गुनगुनाती है
मस्त होकर गिटार बजाती है
जमाने का सामना करने को बार-बार उकसाती है

वो बच्ची बेख़ौफ़ लम्बी यात्राओं पर निकल जाती है
गहरे काले सायों से भी नहीं घबराती है
वह बच्ची मुझे बीहड़ जंगलों में
खिलते रंग-बिरंगे फूलों से महकाती है
वह बच्ची मुझे भयावह रातों में
विस्तृत नभ की सैर कराती है
आसमान से जमीन पर उगते सपनों से मिलवाती है
कभी पंख फैलाकर उड़ना सिखाती है
कभी सागर से मोती चुनवाती है
पेड़ों पर चढ़ना
शाखाओं पर झूलना
फूलों सा खिलखिलाना
चिड़िया सा चहचहाना
उँची उड़ान भरना

मैं उसके साथ चल पड़ती हूँ
पंखों को फैलाने के लिए
संसार में अपना कुछ पाने के लिए
फिर फिर
वह बच्ची मुझ में समा जाती है
और तभी सवेरा हो जाता है
पंख खुलते हैं रौशनी के
मैं बंद कमरे से बाहर हूँ
और मैं पाती हूँ खुद को अंधेरे में