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नफ़रतों की आग में किसका / सुरेश चन्द्र शौक़

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नफ़रतों की आग में किसका निशाँ रह जायेगा

राख हो जायेगा सब कुछ बस धुआँ रह जायेगा


आग तो मज़हब मकीनों के नहीं पहचानती

जल गई बस्ती तो क्या तेरा मकाँ रह जायेगा?


चाहे सूली पर उसे लटकाओ तुम या ज़ह्र दो

वो अगर हक़—गो है तो उसका बयाँ रह जायेगा


अपनी—अपनी ज़िद पे हम नाहक अगर क़ाइम रहे

फ़ासिला जो दरमयाँ है दरमयाँ रह जायेगा


ज़ख्मे—दिल अव्वल तो भरने का नहीं ऐ दोस्तो !

और अगर भर भी गया तो भी निशाँ रह जायेगा


टूटते जाते हैं एक इक करके अहले—दिल के साज़

कौन तेरी बज़्म में अब नग़्मा—खाँ रह जायेगा


रफ़्ता—रफ़्ता मह्व हो जायेगा हर नक़्शे—हसीं

ज़िह्न में बस उनकी यादों का निशा~म रह जायेगा


कुछ कहूँ तो बद्गुमानी उसकी मिट जायेगी ‘शौक़’!

चुप रहूँ लेकिन तो लु्त्फ़े—दास्ताँ रह जायेगा

मकीन=मकान में रहने वाला;नग़मा—खाँ=गायक;मह्व हो जाना=मिट जाना; बदगुमानी=शक