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नम्बर दो के मसखरे / कुबेरदत्त

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लू शुन की रचनाओं को पढ़ते हुए

‘वे, मासूमियत
निःसँगता
और पाखण्ड के स्वच्छन्द प्रतिनिधि हैं’ —
वे असल में सत्ता का सेंसर हैं
और निःशँक, मासूम शब्दों के पीछे छिपे होते हैं
वे मानवतावादी मुखौटे पहनते हैं
पर उनके दिमाग में उबलता रहता है
वर्चस्व का द्रव....

वे ही हैं नम्बर दो के मसखरे....
वे माया-दर्पण रचते हैं
जिसमें एक साथ दिखते हैं दो सच
पहला सच ही है, असली सच
दूसरे सच में वे अपने स्वामी के तलुओं में बिछे हैं....
लार टपकाते...
कुकुर-ध्वनि उच्चारते....
उनमें से कुछ भाड़े पर लिए गए
चाबीदार जँगजू हैं —
जिन्हें पहनाए जाते हैं क़ीमती अँगरखे
अँगरखे पर मोटे-मोटे मगर पारदर्शी
हरुफ़ों में लिखा होता है ‘फ़नकार’
इन भाड़े के जँगजुओं उर्फ़ फ़नकारों का
कोई स्थाई मालिक नहीं होता
इसलिए कि हो ही नहीं सकता
प्रतिबद्धताएँ बदलने में माहिर —
टिक ही नहीं सकते वे एक बारादरी में
इसलिए तो
फीकी पड़ती गई उनकी आब
छीजता गया कौशल
सड़ गलती रही फ़नकारी
आत्मविश्वासहीन हैं .... वे .... अब

सुनो तो !
फिर कहा लू शुन ने —
‘मसखरे होने का रहस्य
नम्बर दो विदूषक की कला का पूरक है’

.....

देखिए गौर से
आत्मविश्वासहीन ... ये जो दीखते हैं न सुसंस्कृत से महानुभाव
इन्हें अपनी असली आँखों से देखिए
साफ़ नजर आएगा —
ये भाड़े के टट्टू हैं...

जब इनका मालिक अपराध करता है
तो वे उसमें सह-अपराधी होते हैं
मगर
वे अपने मालिक से ज़्यादा चालाक हैं
इसीलिए जब ख़ून-ख़राबे की नौबत आती है
उनका मालिक होता है ख़ून से तर-बतर —
पर इनके कपड़े होते हैं झक् सफ़ेद
इनके कपड़ों से ख़ून की बू तक नहीं आती ....

......

एक दृश्य और ... देखिए ...
नम्बर दो के मसखरों ने
यानी भाड़े के, मगर चालाक जँगजू उर्फ़ फ़नकारों ने
अपराधों को पहना दिए गिलाफ़
हत्याओं को बदल दिया प्रहसन में
मँच पर फुदके-मटके, इधर-उधर, खूब...
चकमा दे, इस बीच भाग गए अपराधी
भाग गए हत्यारे...
मसखरे मगर, लगाते रहे चुटकुलों की छौंक
दर्शक हंसते रहे भद-भद हंसी
और इसी दरमियान
मसखरों ने
उन व्यक्तियों से छीन लिया श्रेय
जिन्होंने किया था प्रतिवाद, बुराइयों के विरुद्ध
... वे फिर मँच पर हैं
इस बार आए हैं नेपथ्य से नैतिकतावादी लिबास पहन ...
उस लिबास को तान रहे हैं तम्बू की तरह
तम्बू में एकत्र हो रहे हैं गुण्डे, माफ़िया, साहूकार, एजेण्ट ...
... तम्बू होता गया विशालतर ... भयँकर ... विशालतम ...
होता गया, होता गया ... होता ही गया ...
अन्ततः लील गया एक बहुत बड़ा राष्ट्र .... और कई छोटे-छोटे राष्ट्र
इसके बाद
एक लम्बी, दुर्गन्धभरी डकार लेने के बाद
मसखरों ने ली एक सुदीर्घ अँगड़ाई
और देखते-देखते वे पूँजीपतियों के एक वहशी
कुत्ते की वास्तविक और ख़ूनी मुद्राओं में बदल गए ...
हर मुद्रा में मार्च करतीं असँख्य डिविजन सेनाएँ ...
.............

इसके बाद हुआ ज़ोर का विस्फोट
सब कुछ एक मायावी काले-भूरे धुएँ से भर गया ...
दर्शक सभी चित्त थे
कटे-फटे यहाँ-वहाँ
मांस के लोथड़े ... छप रहे थे अख़बारों में
टी०वी० के डिब्बों पर फैल रही थी चिरान्ध...

कहीं किसी खण्डहर की दीवार से आई है अभी-अभी
लू शुन की आवाज़ —
अभी तो और भी विकसित होंगी —
नम्बर दो के मसखरों की कलाएँ ...
अभी तो रँगशालाओं में
खेले जाएँगे असँख्य
रक्तिम नाटक ....