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नर्म आहट खुशबुओं की / पंख बिखरे रेत पर / कुमार रवींद्र
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आज फिर
इन सीढियों पर
नर्म आहट खुशबुओं की
दबे पाँवों धूप लौटी
और कमरे में घुसी
उँगलियाँ पकड़े हवा की
चढ़ी छज्जे पर ख़ुशी
बात फिर
होने लगी है
फुसफुसाहट खुशबुओं की
एक नीली छाँव
दिन भर
खिड़कियाँ छूने लगी
आँख-मींचे देखती रितु
ढाई आखर की ठगी
तितलियाँ
दालान भर में
है बुलाहट खुशबुओं की