भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नवगीत - 6 / श्रीकृष्ण तिवारी

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 07:46, 3 फ़रवरी 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=श्रीकृष्ण तिवारी |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बांस वनों से गूंज सीटियों की आयी,
सन्नाटे की झील पांव तक थर्रायी|

अनदेखे हाथों ने लाकर चिपकाये
दीवारों पर टूटे पंख तितलियों के,
लहर भिगोकर कपड़े पोंछ गयी सारे
दरवाजे पर उभरे चिन्ह उँगलियों के,
खिड़की पर बैठे -बैठे मन भर आया
द्वार बन्द कमरे में तबियत घबरायी|

शीशे के जारों में बन्द मछलियों ने
सूनी आकृतियों में रंग भरे गहरे,
शब्दों को हिलने -डुलने न कहीं देते
नये -पुराने अर्थों के दुहरे पहरे,
एक प्रश्न जो सारे बंधन खोल गया
उत्तर की सीमा उसको न बांध पायी|

कमरे के कोने में पत्र पड़े कल के
हवा उड़ा ले गयी साथ गलियारों में,
सारा का सारा घर -आंगन भींग गया
गली सड़क को धोती हुई फुहारों में,
टकराकर बंट गयी हजारों कोणों में
आदमकद दर्पण में मेरी परछाईं|