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नाम / सिद्धेश्वर सिंह

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असमर्थ-अवश हो चले हैं शब्दकोश
शिथिल हो गया है व्याकरण
सहमे-सहमे हैं स्वर और व्यंजन
बार-बार बिखर जा रही है वर्णों की माला.

यह कोई संकट का समय नहीं है
न ही आसन्न है भाषा का आपद्काल
अपनी जगह पर टिके हैं ग्रह-नक्षत्र
धूप और उमस के बावजूद
हल्का नहीं हुआ है गुलमुहर का लाल परचम ।

संक्षेप में कहा जाय तो
बस इतनी-सी है बात
आज और अभी
मुझे अपने होठों से
पहली बार उच्चारना है तुम्हारा नाम ।