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नामकरण संस्कार / असंगघोष

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इस धरती पर
किसी ने नहीं जाना-सुना
मेरा दुःख
मेरा जीवन
मैं चन्द्रमा के पास गया
उसे सुनाया अपना दुःख
वह रोता रहा रात भर
उसके आँसुओं की धार
बूँदों में तब्दील हो
बिखर गई
हरी-हरी मखमली घास पर
पेड़-पौधों की पत्तियों पर
ओंस की बूँदों का रूप लिए

छितर गई धरा पर
उस हरी घास पर
चला नंगे पाँव आदमी
पैरों का दबाव पा ओस पसर गई
मैं गया सूरज के पास
वह सात घोड़ों के रथ पर सवार हो
बहुत तेजी से भाग रहा था
अस्ताचल की ओर
समय नहीं था उसके पास
मेरा दर्द सुनने
उसकी किरणों से निकले तेज ने
पेड़-पौधों और घास पर पड़े
चाँद के आँसुओं को सोख लिया

मैं गया जल के पास
वह भी बँटा था
जात-पाँत में
जैसे बँटा था
चकवाड़ा का तालाब
वायु को बहने से फुर्सत नहीं थी
कैसे सुनते वे मेरा क्रंदन

कोई और देवी-देवता
मेरे दुःख को सुनने
मेरे सदियों के संताप को जानने
खाली नहीं था
सबके सब व्यस्त थे
अपने-अपने बोथरे हो चुके
हथियारों की धार तेज करने में
शायद एक और
देवासुर संग्राम बचा हो?

मैं थका हारा
माँ पृथ्वी के पास गया
वही पृथ्वी जिस पर
मैंने जन्म लिया
मोची चमार भंगी के घर
उस माँ को सुनाई
अपनी पीड़ा जिसे जान
वात्सल्यपूर्वक द्रवित हुई माँ पृथ्वी
और मुझे रहने
गाँव के बाहर
थोड़ी-सी जगह दे दी

जिसका नामकरण
अपनी कुटिल बुद्धि से तूने
चमरोटी/मोचीवाड़ा कर दिया
वाह रे तथाकथित नियंता
क्या गजब का है
तेरा यह नामकरण संस्कार।