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नालन्दा / नीलाभ

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एक हज़ार साल पहले उजाड़े गए
ज्ञान के केन्द्र को
फिर से बनाया जा रहा है
फिर से खड़ा किया जा रहा है वह गौरव
जो नष्ट हो गया था सदियों पहले

यह जीर्णोद्धार का युग है
नए निर्माण का नहीं

कैसा था वह ज्ञान
जिसे बचाने के लिए कोई सामने नहीं आया ?
कोई सत्यान्वेषी नहीं ? कोई सत्य साधक नहीं ?

इस निपट निचाट उजाड़ में
सिर्फ़ खण्डहर हैं --
ग्रीष्म की हू-हू करती लू में
या शिशिर की हाड़ कँपाती धुन्ध में
या मूसलों की तरह बरसती बून्दों में --
या फिर एक बस्ती
कनिंघम से पुरानी, कुमार गुप्त,
अशोक, पुष्यमित्र शुंग और बुद्ध से भी पुरानी
अपने रोज़मर्रा के संघर्ष जितने ज्ञान से
काम चलाती हुई

यहाँ बुद्ध ने भोजन किया
यहाँ तथागत ने शयन किया
शास्ता ने यहाँ दिए उपदेश
जो किसी को याद नहीं
ताक में रखे सुत्त पिटक और मज्झिम निकाय को
ढँक लिया है धूल की परत ने

उधर बुहारे जा रहे हैं खण्डहर
आतशी शीशे और ख़ुर्दबीन से हो कर
आँखें ढूँढती हैं निशान खोए हुए गौरव के

पास की झुग्गियों में रहने वाले कृष्णकाय किसान
ढूँढते हैं किसी तरह शरीर से प्राणों के
जोड़े रखने के साधन
इस जुगत में किसी काम नहीं आता
नष्ट हुआ ज्ञान, चूर-चूर हुआ गौरव