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निकल पड़े हैं सनम रात के शिवाले से / 'शमीम' करहानी
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निकल पड़े हैं सनम रात के शिवाले से
कुछ आज शहर-ए-ग़रीबाँ में हैं उजाले से
चलो पलट भी चलें अपने मय-कदे की तरफ
ये आ गए किस अँधेरे में हम उजाले से
ख़ुदा करे कि बिखर जाएँ मेरे शानों पर
सँवर रहे हैं ये बादल जो काले काले से
बुतों की ख़ल्वत-ए-रंगी में बज़्म-ए-अंजुम में
कहाँ कहाँ न गए हम तिरे हवाले से
जुनूँ की वादी-ए-आज़ाद में तलब कर लो
निकाल लो हमें शाम ओ सहर के हाले से
हयात-ए-अस्र फेर दे मिरा माज़ी
हसीन था वो अँधेरा तिरे उजाले से
कोई मनाए तो केसे मनाए दिल को ‘शमीम’
ये बात पूछिए इक रूठ जाने वाले से