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निर्वासन / नीरज दइया

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(लम्बी कविता के अंश)


रचना के मूल में
सदैव ही रहता है कोई बीज
जैसे कविता में मिलता है
कथा का बीज
और कथा में कविता का
कविता करती है प्रतिस्पर्धा
कहानी से
और कहानी
कविता से ।

मेरे सपने आते-जाते हैं
किस राह
बाहर-भीतर मेरे ?

कहाँ से कहाँ ले आए मुझे
सपने मेरे ?

नहीं जानता
सपने के देश में
कब होता है दिन
कब होती है रात ?

नहीं जानता
सपनों की राह में
कहां अटकी हुई है
मेरी आँख ?

मन-बेमन
हो गई हैं बहुत सी बातें
कट गए हैं कई दिन
कट गई हैं कई रातें
रात और दिन के दो पाटों के बीच
पिस रहा हूँ

हे साँवरा !
मामूली है सवाल
इस युग में
क्यों जी रहा है आदमी ?
और क्या सच में
जी रहा है आदमी ?

जीवन के चारों ओर
परकोटे ही परकोटे हैं
है कहाँ कोई विश्वस्त राह !

साँवरे !
प्रतिदिन टूट्ते हैं
मेरी देह के कच्चे धागे
और एक दिन यूँ ही
टूट जाएंगे सारे
एक-एक कर !

तय है पहुँचना
तुम्हारे पास
तुम खींचते हो प्रतिपल
मेरी साँस-डोर !
घड़ी की टिक-टिकी
और साँस की घुक्घुकी
होगा एक दिन
मेरे भीतर
एक विस्फोट !

किन्तु कविता के पाठको !
थोड़ा धैर्य रखो
सपने कभी नहीं मरेंगे
अभी साँसों में सपने हैं
कभी सपनों में होंगी साँसें
सिर्फ़ बदलेगा समय
उतरेगा यह आकाश
फिर किसी अन्य की आँख में
सारे सपने फिर से
लौटेंगे किसी दूसरे वेश में ।

आकाश में हैं-
अभी कई और टूटते तारे
दिखाई देते हैं मुझे
कई-कई सपने मेरे !

यह सच है-
मेरे सृजक
तुम ही हो साँवरे !
मैं तुम्हारी रचना
तुम मेरे सृजक ।

तुम कहाँ हो ?
तुम्हारे रचे इस देश में
इस से बाहर हो
या फिर
बसे हो भीतर मेरे !

मैं नहीं पहचानता निराकार
मुझे चाहिए कोई आकार
एक आकार साक्षात
मेरे भीतर है वह, नहीं
मुझे चाहिए बाहर
एक संपूर्ण आकार
मेरे सृजक !
तुम ने दिया मुझे
अपने देश से पहला निर्वासन
कुछ रचने के बाहने ।
क्या कोख ही है नाम उस देश का ?
जहाँ से मिला था मुझे
सबसे पहला निर्वासन ?


अनुवाद : नवनीत पाण्डे