भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पगहे / रूपम मिश्र

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:23, 17 अक्टूबर 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रूपम मिश्र |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKav...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हमारे पगहे पहले जितने ही जबर और दरेर थे
बस, उनकी रस्सी अब चमकीली हो गयी थी!

क्योंकि अब पगहा घर में नहीं बनाया जाता, बाज़ार से रेडीमेड ख़रीदा जाता है
वो चमकीले प्लास्टिक, नायलॉन से बने थे. ढेर सारे कृतम रंग चढ़े थे उन पर

हम इस नए पगहे को गले में लटकाए शान से घूमते
पुराने पगहे को कोसते
फिर जब ये पगहे कभी चुभते तो हम
फिर बाज़ार में ही हाज़िरी लगाते
बाज़ार ब्राण्डेड का हवाला देकर अपने और पास खींच लेता

हम बाज़ार के पीछे भागते, जलते
पर कोई जुड़ावन तासीर नहीं मिलती

बाज़ार ने हम स्त्रियों को नए-नए दुख दिए
क्योंकि बाज़ार भी उन्हीं का बनाया था

हम कठपुतलियों की तरह नाचते और अपनी आज़ादी के गीत गाते
और उनकी डोरियों में फँसकर बार-बार गिरते
क्योंकि खेल में अब भी सबसे ऊपर वही बैठे थे

हमारा दुलरुवा भूमण्डलीकरण कह रहा था कि शीशमहलों में ले जाएँगे
पर हमें डम्पिंग यार्ड में छोड़ दिया

बाज़ार कह रहा था कि बराबरी देगें
और उसने हमें ही बाज़ार बना दिया

हम कब चिन्हेगें अपने लिए बाज़ार में उतारी गई इनकी रंगीन डोरियों और पगहों को ।