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पछताने पे फिर पछताना पड़ता है / दीपक शर्मा 'दीप'

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 पछताने पे फिर पछताना पड़ता है
उसी गली में वापस आना पड़ता है

उम्रे-नौ के अपने-मन-के-लौंडों-को
दोज़ख है के तौर सिखाना पड़ता है

इस दुनिया का रस्ता बेहद है आसां
पलकों से बस ख़ार उठाना पड़ता है

 पड़ता है पड़ता है पड़ता है या रब
अपने हाथों ख़ुद को खाना पड़ता है

गन्दा-गन्दा होअ्ना पड़ता है यां पर
अच्छी-अच्छी बात बताना पड़ता है

इस काँधे पर बोझ ज़ियादा होगा ही
यहीं बगल में उसका शाना पड़ता है

यों ही रिश्ते निभते हैं क्या बैठे दीप
साहिब! थोड़ा आना-जाना पड़ता है