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पद / 3 / रानी रघुवंशकुमारी
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पिय के पदकंजन-राती।
विष्णु बिरंचि संभु पति में छिन छिन प्रेम लगाती।
तन मन बचन छांड़ि छल भमिनि पति सेवन बहु भाँती॥
कबहुँ नहिं प्रीति सुनाती।
पिय के.॥
दासीसम सेवति जननीसम खान पान सब लाती।
सखिसम केलि करत निसिबासर भगिनी सम समझाती॥
बंधु सम सँग-सँगाती।
पिय के.॥
प्रिय पति बिरह अमरपुरहू में रहति सदा अकुलाती।
पतिसँग सघन बिपिन को रहिबो सेवन रस मदमाती॥
हृदय मानहि बहु भाँति।
पिय के.।
नाहिं द्वार रहति नहि परघर एकाकिन कहि जाती
मूँदति नैन ध्यान उर आनति, ‘गुनवति’ पति गुन गाती।
नहिं मन मोद समाती।
पिय के.॥