भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पल पल मन / हरीश करमचंदाणी

Kavita Kosh से
Neeraj Daiya (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 05:18, 25 मई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: <poem> एक दिन सुख मेरे पास दबे पांव आया उस समय मैं सो रहा था दुखो से घि…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 एक दिन सुख मेरे पास दबे पांव आया
  उस समय मैं सो रहा था
  दुखो से घिरा था मैं
  बड़ी मुश्किल से बहुत देर से आई थी नींद
 मैं झुंझलाया हुई भारी कोफ्त
 झिड़क ही दिया उसे
 और वह भी दुःख हो गया
  एक दिन दुःख मुझसे बोला
 जाता हूँ तुम्हे छोड़ कर
 कहीं और जाना बेहद जरूरी हैं
 पर भूल मत जाना मुझे
 आऊंगा फिर
 मगर कब.... नहीं कह सकता अभी
 मुझे उसकी पीठ दिखाई दी
 वह मेरा सुख बन गया
 फिर एक दिन वे आये साथ साथ
 मुझे चौंकाते,
 लगभग स्तब्ध करते
 मैं अवाक् देखता रहा उन्हें चुपचाप
 बोले -यार ,ऐसा भी क्या
 जो हो रहे हो अचंभित
 आखिर हमारा भी तो मन हैं
 करता है कभी कभी साथ रहने को
 मैं सुनता रहा हँसता रहा....
 फिर एकाएक रो पड़ा हंसते हंसते