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पलकों से चाँदनी की किरचें उठा रहा हूँ / ज्ञान प्रकाश विवेक
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पलकों से चाँदनी की किरचें उठा रहा हूँ
मैं रौशनी का उत्सव ऐसे मना रहा हूँ
मिट्टी का एक दीया हूँ जुर्रत तो देख मेरी
उँगली से तीरगी के अक्षर मिटा रहा हूँ
तू जिनको फेंक आया शमशान बस्तियों में
उन जुगनुओं को फिर से जीना सिखा रहा हूँ
ये सोचकर कि टूटे जादू अँधेरी शब का
रस्ते में आहटों के दीपक जला रहा हूँ
झुलसे हुए लबों की इतनी-सी है कहानी
ख़ुर्शीद की जबीं को मैं चूमता रहा हूँ