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पहाड़ी गाँव की एक मनमोहक शाम / गिरीश चंद्र तिबाडी 'गिर्दा'

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पार पछय़ूं बटी, माठू-माठु, ठुमुकि-ठुमुकि
रतङ्यालि जै छबिलि-सुघड़ि, हुलरि ऐ गै ब्याल!
गौनन गोर-बाछन दगै मोहन की मुरुलि रणकि
बिनु-बिजौराक गाल में लटकि घंटुलि खणकि
अदम बाटै खालि घड़ ल्ही, बावरि राधिका जसि
चाय्यैं रैगै ब्याल, चाय्यैं रैगे ब्याल!