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पाकड़-1 / ज्ञान प्रकाश चौबे

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जिस दिन धूप में गंध रहती
पाकड़ हँसता है
उसकी हँसी जाड़े की धूप-सी
बड़ी भली लगती है
उगते हुए गाँव के साथ

दादा कहते रोज़ मुझसे
इसकी पत्तियों का रंग
हमारे चेहरों के रंग से बनता है
और इसका चेहरा
हर फ़सल के बाद
बदल लेता है अपना चेहरा

मेरे गाँव की पगड़ी है
इसकी ख़ूब घनेरी पत्तियों का जंगल
जिसमें अनजाने ढेरों किस्से-कहावतें
लुका-छिपी का खेल खेलती
पहली बार मैंने
यहीं सुना था हवा को गाते हुए
जिसके सुर में
हम चरवाहों की ताने बोलती

जब कोई बाहर जाता
उसकी दुआ-पैलगी ज़रूर होती
बहुएँ मायके से आतीं
बेटियाँ अक्सर ससुराल जातीं
रूकती यहाँ पर आध-एक घण्टे
बतियाती अपना सुख-दुख
शहर से लौटती चिट्ठियाँ
ज़रूर सुस्तातीं इसकी छाँह में

बूढ़ा बुजुर्ग पाकड़
कभी पेड़ नहीं रहा
पूर्वजों की गर्म हथेलियों से उलचता
आशीर्वाद था हमारे लिए