भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पाबंदियों से अपनी निकलते वो पा न थे / ज़फ़ीर-उल-हसन बिलक़ीस

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ३ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 06:53, 22 अक्टूबर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ज़फ़ीर-उल-हसन बिलक़ीस }} {{KKCatGhazal}} <poem> प...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पाबंदियों से अपनी निकलते वो पा न थे
सब रास्ते खुले थे मगर हम पे वा न थे

ये और बात शौक़ से हम को सुना गया
फिर भी वही सुनाया सुना इक फ़साना थे

इक आग-साएबान था सर पर तना हुआ
पल पल ज़मीं सरकती थी और हम रवाना थे

दरिया में रह के कोई न भीगे तो किस तरह
हम बे-नियाज़ तेरी तरह ऐ ख़ुदा न थे

हरगिज़ गिला नहीं है कि तू मेहरबाँ न था
कब हम भी अपने आप से बेहद ख़फ़ा न थे

क्यूँ सब्र-आश्ना न हुआ न-मुराद दिल
तेरे करम के हाथ तो यूँ बे-अता न थे

वो और हम से पूछै कि ‘बिल्क़ीस’ कुछ तो कह
कम-बख़्त हम कि होश ही अपने बजा न थे