भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पावस-प्रात, शिलांग / अज्ञेय
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:04, 12 मई 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज्ञेय |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poe...' के साथ नया पन्ना बनाया)
भोर बेला। सिंची छत से ओस की तिप्-तिप्! पहाड़ी काक
की विजन को पकड़ती-सी क्लांत बेसुर डाक-
'हाक्! हाक्! हाक्!'
मत सँजो यह स्निग्ध सपनों का अलस सोना-
रहेगी बस एक मुठ्ठी खाक!
'थाक्! थाक्! थाक्!'