भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पिता के जूते / नील कमल

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:11, 19 अप्रैल 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कठिन वह एक डगर
और नमक पड़ा जले पर
इस तरह तय किया सफ़र
हमने पिता के जूतों में

इतिहास की धूल और
चुभते कई शूल, समय के,
चलते हुए साथ-साथ इस यात्रा में

आसान नहीं होतीं यात्राएँ
ऐसे जूतों में कि जिनके तलवों से
चिपके होते हैं अगणित अदृश्य पथ
और कील-कंकड़ कितने ही

आसान नहीं होता
पिता के जूतों में
अपनी राह बना लेना
पहुँचना किसी नई मंज़िल

उलटी राह चलते हैं पाँव
इन जूतों में और खो जाते हैं,
इतिहास के किसी खोह में

बच के आएगा,
इतिहास के इस खोह से, वही बच्चा,
जो उतार फेंकेगा पाँवों से, पिता के जूते
अपने लिए ढूँढ़ेगा, अपनी माप के जूते

चलेगा वह आगे की ओर
बनायेगा खुद अपनी राह
और तय करेगा मंज़िल
अपने जूतों में

बड़े काम की होती है
पिता की वह चिट्ठी
आगाह करती हुई कि बेटा,
मत डालना पाँव मेरे जूतों में
ढूँढ़ना अपने नम्बर वाला जूता
बनाना अपनी राह ख़ुद ही,
बहुत बड़ी है पृथ्वी
दस दिशाएँ पृथ्वी पर
और दस नम्बर जूतों के !