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पिता बहुत आगाँ छथि / दिलीप कुमार झा

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हमर पिता वाद्वान नहि रहथि
साहित्यकार तँ नहिये रहथि
जीबाक लेल कोरथि माटि
उपजाबथि रंग-बिरंगक अन्न
स' ख छलनि लगेबाक रंग-बिरंगक गाछ
जेना हमरा व्यसन अछि
रचबाक कविताक पाँती
पिता बड़ यत्नसँ गाछ रोपैत छलाह
ओकरवृद्धि ओ पोषणपर पूर्ण धियान दैत छलाह
आइ ओ गाछसभ भकरार भ' रहलए
फल फूलसँ महमह करैत उद्यान
हुनक स्वप्नकें साकार क' रहलए
हमर शब्दक ई संयोजन
कहियो बराबरी क' सकत हुनक गाछक
हमरा जनैत नहि
बिलहि सकत वातावरणमे प्राणवायु
तकरो संभावना नहिये अछि
कृषक होइतो पिता
हमरासँ बहुत आगाँ छथि
बहुत आगाँ!