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पिता सरीखे गाँव / राजेन्द्र गौतम

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तुम भी कितने बदल गए
ओ पिता सरीखे गाँव ।

परम्पराओं-सा बरगद का
कटा हुआ यह तन
बो देता है रोम-रोम में
बेचैनी सिहरन

तभी तुम्हारी ओर उठे ये
ठिठके रहते पाँव ।

जिसकी वत्सलता में डूबे
कभी-कभी संत्रास
पच्छिम वाले उस पोखर में
सड़ती है अब लाश

किसमें छोड़ूँ सपनों वाली
काग़ज़ की यह नाव ।

इस नक़्शे से मिटा दिया है
किसने मेरा घर
बेखटके क्यों घूम रहा है
एक बनैला डर

मन्दिर वाली इमली की भी
घायल है अब छाँव ।