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पृथ्वी के छोर / संजय कुमार शांडिल्य

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यह पृथ्वी का एक छोर है :
गाँव पहाड़ की तलहटी है
जहाँ एन्डीज़ मिल रहा है
सपाट मैदानों से
पेरू की किसी लोकभाषा में
कचरा बटोरने का गीत है
घोड़े की बग्घी में
पुरूष जब विलासिता के
कार्टून चुनने निकलेगें
हाथों को काम करता देख
होंठ उन्हें अपने आप गाएँगे ।
स्त्रियाँ पास ही शहरी इलाकों में
बच्चे सँभालने निकलेगी
बच्चे ईश्वर सँभालता है
उसी लोकभाषा में यह भी
एक गीत है पृथ्वी के उसी छोर पर ।
यह पृथ्वी का दूसरा छोर है
मेरे पड़ोस में :
मूँज के पौधों में सरकण्डे होने से पहले
सपाट मैदानों के भी अपने पहाड़ हैं
जिनकी तलहटियों से
कुछ स्त्रियाँ खर निकालने निकलेंगी
कुछ रह जाएँगी गोबर पाथने।
अभी सरोद की तरह बजेगी पृथ्वी
मूँज धूप में सूखेगा
झूमर और कजरी के गीत साथ-साथ
झरेंगे
लकड़ियाँ और पत्ते पास के
जंगल से इकट्ठा कर
पुरूष घर लौटेगा ।
यहाँ की लोकभाषा में भात
बनने का भी एक लोकगीत है ।
फिर किसी सस्ती सी आँच पर
प्रेम वहाँ भी पकेगा और यहाँ भी
एक साथ रात की देह गिरेगी
ओस की तरह
श्रम से दुनिया को भरती हुईं
सुबहें उगेगी
खाली जगहों में
लकीरों की तरह
हम दुनिया के छोर पर
काम करते हुए लोग
सुबह की इन लकीरों को
कविताओं में पढ़ेंगे ।