भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पैसे-1 / प्रियदर्शन

Kavita Kosh से
Gayatri Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:07, 2 सितम्बर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रियदर्शन |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatK...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बहुत पैसे कमाता हूं
ज़रूरत, शौक या दिखावे पर खरचने के लिए
अब सोचना नहीं पड़ता।
मॉल और मल्टीप्लेक्स में धड़ल्ले से जाता हूं
अब पहले की तरह डॉक्टर के पास जाने के पहले नई सैलरी का इंतज़ार नहीं करना पड़ता
या महीने के आखिर में मेहमानों के चले आने पर पैसे का इंतज़ाम नहीं करना पड़ता
इसके बावजजूद न फिक्र घटती है
न तनाव कम होता है
उल्टे वह बढ़ता जाता है
सबसे ज़्यादा बढ़ती है असुरक्षा
उससे कुछ कम, लेकिन फिर भी काफी, बढ़ जाती है अतृप्ति।
सबसे कम बढ़ती है खुशी.
बल्कि उसे खोजना पड़ता है,
उसका इंतज़ाम करना पड़ता है
जिसमें बहुत पैसा लगता है
और ये भ्रम भी बनता है
कि और पैसा होगा तो और खुशी खरीद लाएंगे हम।
धीरे-धीरे यह भ्रम यकीन में तब्दील होता जाता है
फिर ज़रूरत में और अंत में आदत में।
इस बीच पैसा कमाने की दौड़ बड़ी होती जाती है
हांफती हुई उम्र अपने लिए उल्लास की तलाश में निकलती है
और बाज़ार जाकर लौट आती है- किसी कचोट के साथ महसूस करती हुई
कि ज़िंदगी तो छूट गई पीछे।