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प्रिय प्रवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / अष्टम सर्ग / पृष्ठ - ४

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मन्दाक्रान्ता छन्द

ऐसे सारी ब्रज-अवनि के एक ही लाडिले को।
छीना कैसे किस कुटिल ने क्यों कहाँ कौन बेला।
हा! क्यों घोला गरल उसने स्निग्धकारी रसों में।
कैसे छींटा सरस कुसुमोद्यान में कंटकों को॥61॥

लीलाकारी, ललित-गलियों, लोभनीयालयों में।
क्रीड़ाकारी कलित कितने केलिवाले थलों में।
कैसे भूला ब्रज-अवनि को कूल को भानुजा के।
क्या थोड़ा भी हृदय मलता लाडिले का न होगा॥62॥

क्या देखूँगी न अब कढ़ता इंदु को आलयों में।
क्या फूलेगा न अब गृह में पद्म सौंदर्य्यशाली।
मेरे खोटे दिवस अब क्या मुग्धकारी न होंगे।
क्या प्यारे का अब न मुखड़ा मंदिरों में दिखेगा॥63॥

हाथों में ले 'मधुर दधि को दीर्घ उत्कण्ठता से।
घंटों बैठी कुँवर-पथ जो आज भी देखती है।
हा! क्या ऐसी सरल-हृदया सद्म की स्वामिनी की।
वांछा होगी न अब सफला श्याम को देख ऑंखें॥64॥

भोली भाली सुख सदन की सुन्दरी बालिकायें।
जो प्यारे के कल कथन की आज भी उत्सुका हैं।
क्रीड़ाकांक्षी सकल शिशु जो आज भी हैं स-आशा।
हा! धाता, क्या न अब उनकी कामना सिध्द होगी॥65॥

प्रात: वेला यक दिन गई नन्द के सद्म मैं थी।
बैठी लीला महरि अपने लाल की देखती थीं।
न्यारी क्रीड़ा समुद करके श्याम थे मोद देते।
होठों में भी विलसित सिता सी हँसी सोहती थी॥66॥

ज्योंही ऑंखें मुझ पर पड़ीं प्यार के साथ बोलीं।
देखो कैसा सँभल चलता लाडिला है तुम्हारा।
क्रीड़ा में है निपुण कितना है कलावान कैसा।
पाके ऐसा वर सुअन मैं भाग्यमाना हुई हूँ॥67॥

होवेगा सो सुदिन जब मैं ऑंख से देख लूँगी।
पूरी होतीं सकल अपने चित्त की कामनायें।
ब्याहूँगी मैं जब सुअन को औ मिलेगी वधूटी।
तो जानूँगी अमरपुर की सिध्दि है सद्म आई॥68॥

ऐसी बातें उमग कहती प्यार से थीं यशोदा।
होता जाता हृदय उनका उत्स आनंद का था।
हा! ऐसे ही हृदय-तल में शोक है आज छाया।
रोऊँ मैं या यह सब कहूँ या मरूँ क्या करूँ मैं॥69॥

यों ही बातें विविध कह के कष्ट के साथ रो के।
आवेगों से व्यथित बन के दु:ख से दग्ध हो के।
सारे प्राणी ब्रज-अवनि के दर्शनाशा सहारे।
प्यारे से हो पृथक अपने वार को थे बिताते॥70॥