भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्रिय प्रवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / चतुर्थ सर्ग / पृष्ठ - २

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:35, 29 जुलाई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ |संग्रह=प्रिय प्…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

द्रुतविलम्बित छन्द

कमल का दल भी हिम-पात से।
दलित हो पड़ता सब काल है।
कल कलानिधि को खल राहु भी।
निगलता करता बहु क्लान्त है॥21॥

        कुसुम सा प्रफुल्लित बालिका।
        हृदय भी न रहा सुप्रफुल्ल ही।
        वह मलीन सकल्मष हो गया।
        प्रिय मुकुन्द प्रवास-प्रसंग से॥22॥

सुख जहाँ निज दिव्य स्वरूप से।
विलसता करता कल-नृत्य है।
अहह सो अति-सुन्दर सद्म भी।
बच नहीं सकता दुखलेश से॥23॥

        सब सुखाकर श्रीवृषभानुजा।
        सदन-सज्जित-शोभन-स्वर्ग सा।
        तुरत ही दुख के लवलेश से।
        मलिन शोक-निमज्जित हो गया॥24॥

जब हुई श्रुति-गोचर सूचना।
ब्रज धराधिप तात प्रयाण की।
उस घड़ी ब्रज-वल्लभ प्रेमिका।
निकट थी प्रथिता ललिता सखी॥25॥

        विकसिता-कलिका हिमपात से।
        तुरत ज्यों बनती अति म्लान है।
        सुन प्रसंग मुकुन्द प्रवास का।
        मलिन त्यों वृषभानुसुता हुईं॥26॥

नयन से बरसा कर वारि को।
बन गईं पहले बहु बावली।
निज सखी ललिता मुख देख के।
दुखकथा फिर यों कहने लगीं॥27॥

मालिनी छन्द

कल कुवलय के से नेत्रवाले रसीले।
वररचित फबीले पीते कौशेय शोभी।
गुणगण मणिमाली मंजुभाषी सजीले।
वह परम छबीले लाडिले नन्दजी के॥28॥

        यदि कल मथुरा को प्रात ही जा रहे हैं।
        बिन मुख अवलोके प्राण कैसे रहेंगे।
        युग सम घटिकायें वार की बीतती थीं।
        सखि! दिवस हमारे बीत कैसे सकेंगे॥29॥

जन मन कलपाना मैं बुरा जानती हूँ।
परदुख अवलोके मैं न होती सुखी हूँ।
कहकर कटु बातें जी न भूले जलाया।
फिर यह दुखदायी बात मैंने सुनी क्यों?॥30॥

        अयि सखि! अवलोके खिन्नता तू कहेगी।
        प्रिय स्वजन किसी के क्या न जाते कहीं हैं।
        पर हृदय न जानें दग्ध क्यों हो रहा है।
        सब जगत हमें है शून्य होता दिखाता॥31॥

यह सकल दिशायें आज रो सी रही हैं।
यह सदन हमारा, है हमें काट खाता।
मन उचट रहा है चैन पाता नहीं है।
विजन-विपिन में है भागता सा दिखाता॥32॥

        रुदनरत न जानें कौन क्यों है बुलाता।
        गति पलट रही है भाग्य की क्यों हमारे।
        उह! कसक समाई जा रही है कहाँ की।
        सखि! हृदय हमारा दग्ध क्यों हो रहा है॥33॥

मधुपुर-पति ने है प्यार ही से बुलाया।
पर कुशल हमें तो है न होती दिखाती।
प्रिय-विरह-घटायें घेरती आ रही हैं।
घहर घहर देखो हैं कलेजा कँपाती॥34॥

        हृदय चरण तो मैं चढ़ा ही चुकी हूँ।
        सविधि-वरण की थी कामना और मेरी।
        पर सफल हमें सो है न होती दिखाती।
        वह कब टलता है भाल में जो लिखा है॥35॥

सविधि भगवती को आज भी पूजती हूँ।
बहु-व्रत रखती हूँ देवता हूँ मनाती।
मम-पति हरि होवें चाहती मैं यही हूँ।
पर विफल हमारे पुण्य भी हो चले हैं॥36॥

        करुण ध्वनि कहाँ की फैल सी क्यों गई है।
        सब तरु मन मारे आज क्यों यों खड़े हैं।
        अवनि अति-दुखी सी क्यों हमें है दिखाती।
        नभ-पर दुख-छाया-पात क्यों हो रहा है॥37॥

अहह सिसकती मैं क्यों किसे देखती हूँ।
मलिन-मुख किसी का क्यों मुझे है रुलाता।
जल जल किसका है छार-होता कलेजा।
निकल निकल आहें क्यों किसे बेधती हैं॥38॥

        सखि, भय यह कैसा गेह में छा गया है।
        पल-पल जिससे मैं आज यों चौंकती हूँ।
        कँप कर गृह में की ज्योति छाई हुई भी।
        छन-छन अति मैली क्यों हुई जा रही है॥39॥

मनहरण हमारे प्रात जाने न पावें।
सखि! जुगुत हमें तो सूझती है न ऐसी।
पर यदि यह काली यामिनी ही न बीते।
तब फिर ब्रज कैसे प्राणप्यारे तजेंगे॥40॥