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प्रिय प्रवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / चतुर्दश सर्ग / पृष्ठ - १

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मन्दाक्रान्ता छन्द

कालिन्दी के पुलिन पर थी एक कुंजातिरम्या।
छोटे-छोटे सु-द्रुम उसके मुग्ध-कारी बड़े थे।
ऐसे न्यारे प्रति-विटप के अंक में शोभिता थी।
लीला-शीला-ललित लतिका पुष्पभारावनम्रा॥1॥

बैठे ऊधो मुदित-चित से एकदा थे इसी में।
लीलाकारी सलिल सरि का सामने सोहता था।
धीरे-धीरे तपन-किरणें फैलती थीं दिशा में।
न्यारी-क्रीड़ा उमंग करती वायु थी पल्लवों से॥2॥

बालाओं का यक दल इसी काल आता दिखाया।
आशाओं को ध्वनित करके मंजु-मंजीरकों से।
देखी जाती इस छविमयी मण्डली संग में थीं।
भोली-भाली कपितय बड़ी-सुन्दरी-बालिकायें॥3॥

नीला-प्यारा उदक सरि का देख के एक श्यामा।
बोली हो के विरस-वदना अन्य-गोपांगना से।
कालिन्दी का पुलिन मुझको उन्मना है बनाता।
लीला-मग्ना जलद-तन की मुर्ति है याद आती॥4॥

श्यामा-बातें श्रवण करके बालिका एक रोई।
रोते-रोते अरुण उसके हो गये नेत्र दोनों।
ज्यों-ज्यों लज्जा-विवश वह थी रोकती वारि-धारा।
त्यों-त्यों ऑंसू अधिकतर थे लोचनों मध्य आते॥5॥

ऐसा रोता निरख उसको एक मर्म्मज्ञ बोली।
यों रोवेगी भगिनि यदि तू बात कैसे बनेगी।
कैसे तेरे युगल-दृग ए ज्योति-शाली रहेंगे।
तू देखेगी वह छविमयी-श्यामली-मुर्ति कैसे॥6॥

जो यों ही तू बहु-व्यथित हो दग्ध होती रहेगी।
तेरे सूखे-कृशित-तन में प्राण कैसे रहेंगे।
जी से प्यारा-मुदित-मुखड़ा जो न तू देख लेगी।
तो वे होंगे सुखित न कभी स्वर्ग में भी सिधा के॥7॥

मर्म्मज्ञा का कथन सुन के कामिनी एक बोली।
तू रोने दे अयि मम सखी खेदिता-बालिका को।
जो बालायें विरह-दव में दग्धिता हो रही हैं।
आँखों का ही उदक उनकी शान्ति की औषधी है॥8॥

वाष्प-द्वारा बहु-विधा-दुखों वर्ध्दिता-वेदना के।
बालाओं का हृदय-नभ जो है समाच्छन्न होता।
तो निर्ध्दूता तनिक उसकी म्लानता है न होती।
पर्जन्यों सा न यदि बरसें वारि हो, वे दृगों से॥9॥

प्यारी-बातें श्रवण जिसने की किसी काल में भी।
न्यारा-प्यारा-वदन जिसने था कभी देख पाया।
वे होती हैं बहु-व्यथित जो श्याम हैं याद आते।
क्यों रोवेगी न वह जिसके जीवनाधार वे हैं॥10॥

प्यारे-भ्राता-सुत-स्वजन सा श्याम को चाहती हैं।
जो बालायें व्यथित वह भी आज हैं उन्मना हो।
प्यारा-न्यारा-निज हृदय जो श्याम को दे चुकी है।
हा! क्यों बाला न वह दुख से दग्ध हो रो मरेगी॥11॥

ज्यों ए बातें व्यथित-चित से गोपिका ने सुनाई।
त्यों सारी ही करुण-स्वर से रो उठीं कम्पिता हो।
ऐसा न्यारा-विरह उनका देख उन्माद-कारी।
धीरे ऊधो निकट उनके कुंज को त्याग आये॥12॥

ज्यों पाते ही सम-तल धार वारि-उन्मुक्त-धारा।
पा जाती है प्रमित-थिरता त्याग तेजस्विता को।
त्योंही होता प्रबल दुख का वेग विभ्रान्तकारी।
पा ऊधो को प्रशमित हुआ सर्व-गोपी-जनों का॥13॥

प्यारी-बातें स-विधा कह के मान-सम्मान-सिक्ता।
ऊधो जी को निकट सबने नम्रता से बिठाया।
पूछा मेरे कुँवर अब भी क्यों नहीं गेह आये।
क्या वे भूले कमल-पग की प्रेमिका गोपियों को॥14॥

ऊधो बोले समय-गति है गूढ़-अज्ञात बेंड़ी।
क्या होवेगा कब यह नहीं जीव है जान पाता।
आवेंगे या न अब ब्रज में आ सकेंगे बिहारी।
हा! मीमांसा इस दुख-पगे प्रश्न की क्यों करूँ मैं॥15॥

प्यारा वृन्दा-विपिन उनको आज भी पूर्व-सा है।
वे भूले हैं न प्रिय-जननी औ न प्यारे-पिता को।
वैसी ही हैं सुरति करते श्याम गोपांगना की।
वैसी ही है प्रणय-प्रतिमा-बालिका याद आती॥16॥

प्यारी-बातें कथन करके बालिका-बालकों की।
माता की और प्रिय-जनक की गोप-गोपांगना की।
मैंने देखा अधिकतर है श्याम को मुग्ध होते।
उच्छ्वासों से व्यथित-उर के नेत्र में वारि लाते॥17॥

सायं-प्रात: प्रति-पल-घटी है, उन्हें याद आती।
सोते में भी ब्रज-अवनि का स्वप्न वे देखते हैं।
कुंजों में ही मन मधुप सा सर्वदा घूमता है।
देखा जाता तन भर वहाँ मोहिनी-मुर्ति का है॥18॥

हो के भी वे ब्रज-अवनि के चित्त से यों सनेही।
क्यों आते हैं न प्रति-जन का प्रश्न होता यही है।
कोई यों है कथन करता तीन ही कोस आना।
क्यों है मेरे कुँवर-वर को कोटिश: कोस होता॥19॥

दोनों ऑंखें सतत जिनकी दर्शनोत्कण्ठिता हों।
जो वारों को कुँवर-पथ को देखते हैं बिताते।
वे हो-हो के विकल यदि हैं पूछते बात ऐसी।
तो कोई है न अतिशयता औ न आश्चर्य्य ही है॥20॥