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प्रिय प्रवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / तृतीय सर्ग / पृष्ठ - २

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सित हुए अपने मुख - लोम को।
कर गहे दुखव्यंजक भाव से।
विषम – संकट बीच पड़े हुए।
बिलखते चुपचाप ब्रजेश थे॥२१॥
हृदय – निर्गत वाष्प समूह से।
सजल थे युग - लोचन हो रहे।
बदन से उनके चुपचाप ही।
निकलती अति - तप्त उसास थी॥२२॥
शयित हो अति - चंचल - नेत्र से।
छत कभी वह थे अवलोकते।
टहलते फिरते स - विषाद थे।
वह कभी निज निर्जन कक्ष में॥२३॥
जब कभी बढ़ती उर की व्यथा।
निकट जा करके तब द्वार के।
वह रहे नभ नीरव देखते।
निशि - घटी अवधारण के लिए॥२४॥
सब - प्रबंध प्रभात - प्रयाण के।
यदिच थे रव – वर्जित हो रहे।
तदपि रो पड़ती सहसा रहीं।
विविध - कार्य - रता गृहदासियाँ॥२५॥
जब कभी यह रोदन कान में।
ब्रज – धराधिप के पड़ता रहा।
तड़पते तब यों वह तल्प पै।
निशित – शायक – विद्धजनो यथा॥२६॥
ब्रज – धरा – पति कक्ष समीप ही।
निपट – नीरव कक्ष विशेष में।
समुद थे ब्रज - वल्लभ सो रहे।
अति – प्रफुल्ल मुखांबुज मंजु था॥२७॥
निकट कोमल तल्प मुकुंद के।
कलपती जननी उपविष्ट थी।
अति – असंयत अश्रु – प्रवाह से।
वदन – मंडल प्लावित था हुआ॥२८॥
हृदय में उनके उठती रही।
भय – भरी अति – कुत्सित – भावना।
विपुल – व्याकुल वे इस काल थीं।
जटिलता – वश कौशल – जाल की॥२९॥
परम चिंतित वे बनती कभी।
सुअन प्रात प्रयाण प्रसंग से।
व्यथित था उनको करता कभी।
परम – त्रास महीपति - कंस का॥३०॥
पट हटा सुत के मुख कंज की।
विचकता जब थीं अवलोकती।
विवश सी जब थीं फिर देखती।
सरलता, मृदुता, सुकुमारता॥३१॥
तदुपरांत नृपाधम - नीति की।
अति भयंकरता जब सोचतीं।
निपतिता तब होकर भूमि में।
करुण क्रंदन वे करती रहीं॥३२॥
हरि न जाग उठें इस सोच से।
सिसकतीं तक भी वह थीं नहीं।
इसलिए उन का दुख - वेग से।
हृदया था शतधा अब रो रहा॥३३॥
महरि का यह कष्ट विलोक के।
धुन रहा सिर गेह – प्रदीप था।
सदन में परिपूरित दीप्ति भी।
सतत थी महि – लुंठित हो रही॥३४॥
पर बिना इस दीपक - दीप्ति के।
इस घड़ी इस नीरव - कक्ष में।
महरि का न प्रबोधक और था।
इसलिए अति पीड़ित वे रहीं॥३५॥
वरन कंपित – शीश प्रदीप भी।
कर रहा उनको बहु – व्यग्र था।
अति - समुज्वल - सुंदर - दीप्ति भी।
मलिन थी अतिही लगती उन्हें॥३६॥
जब कभी घटता दुख - वेग था।
तब नवा कर वे निज - शीश को।
महि विलंबित हो कर जोड़ के।
विनय यों करती चुपचाप थीं॥३७॥
सकल – मंगल – मूल कृपानिधे।
कुशलतालय हे कुल - देवता।
विपद संकुल है कुल हो रहा।
विपुल वांछित है अनुकूलता॥३८॥
परम – कोमल-बालक श्याम ही।
कलपते कुल का यक चिन्ह है।
पर प्रभो! उसके प्रतिकूल भी।
अति – प्रचंड समीरण है उठा॥३९॥
यदि हुई न कृपा पद - कंज की।
टल नहीं सकती यह आपदा।
मुझ सशंकित को सब काल ही।
पद – सरोरुह का अवलंब है॥४०॥