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प्रिय प्रवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / पंचदश सर्ग / पृष्ठ - ३

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मैंने देखा अधिकतर है भृंग आ पास तेरे।
अच्छा पाता न फल अपनी मुग्धता का कभी है।
आ जाती है दृग-युगल में अंधता धूलि-द्वारा।
काँटों से हैं उभय उसके पक्ष भी छिन्न होते॥41॥

क्यों होती है अहह इतनी यातना प्रेमिकों की।
क्यों बाधा औ विपदमय है प्रेम का पंथ होता।
जो प्यारा औ रुचिर-विटपी जीवनोद्यान का है।
सो क्यों तीखे कुटिल उभरे कंटकों से भरा है॥42॥

पूरा रागी हृदय-तल है पुष्प बन्धु तेरा।
मर्य्यादा तू समझ सकता प्रेम के पंथ की है।
तेरी गाढ़ी नवल तन की लालिमा है बताती।
पूरा-पूरा दिवस-पति के प्रेम में तू पगा है॥43॥

तेरे जैसे प्रणय-पथ के पान्थ उत्पन्न हो के।
प्रेमी की हैं प्रकट करते पक्वता मेदनी में।
मैं पाती हूँ परम-सुख जो देख लेती तुझे हूँ।
क्या तू मेरी उचित कितनी प्रार्थनायें सुनेगा॥44॥

मैं गोरी हूँ कुँवर-वर की कान्ति है मेघ की सी।
कैसे मेरा, महर-सुत का, भेद निर्मूल होगा।
जैसे तू है परम-प्रिय के रंग में पुष्प डूबा।
कैसे वैसे जलद-तन के रंग में मैं रँगूँगी॥45॥

पूरा ज्ञाता समझ तुझको प्रेम की नीतियों का।
मैं ऐ प्यारे कुसुम तुझसे युक्तियाँ पूछती हूँ।
मैं पाऊँगी हृदय-तल में उत्तम-शांति कैसे।
जो डूबेगा न मम तन भी श्याम के रंग ही में॥46॥

'ऐसी, हो के कुसुम तुझमें प्रेम की पक्वता है।
मैं हो के भी मनुज-कुल की, न्यूनता से भरी हूँ।
कैसी लज्जा-परम-दुख की बात मेरे लिए है।
छा जावेगा न प्रियतम का रंग सर्वांग में जो॥47॥

वंशस्थ छन्द

खिला हुआ सुन्दर-वेलि-अंक में।
मुझे बता श्याम-घटा प्रसून तू।
तुझे मिली क्यों किस पूर्व-पुण्य से।
अतीव-प्यारी-कमनीय-श्यामता॥48॥

हरीतिमा वृन्त समीप की भली।
मनोहरा मध्य विभाग श्वेतता।
लसी हुई श्यामलताग्रभाग में।
नितान्त है दृष्टि विनोद-वर्ध्दिनी॥49॥

परन्तु तेरा बहु-रंग देख के।
अतीव होती उर-मध्य है व्यथा।
अपूर्व होता भव में प्रसून तू।
निमग्न होता यदि श्याम-रंग में॥50॥

तथापि तू अल्प न भाग्यवान है।
चढ़ा हुआ है कुछ श्याम रंग तो।
अभागिनी है वह, श्यामता नहीं।
विराजती है जिसके शरीर में॥51॥

न स्वल्प होती तुझमें सुगंधि है।
तथापि सम्मानित सर्व-काल में।
तुझे रखेगा ब्रज-लोक दृष्टि में।
प्रसून तेरी यह श्यामलांगता॥52॥

निवास होगा जिस ओर सूर्य का।
उसी दिशा ओर तुरंत घूम तू।
विलोकती है जिस चाव से उसे।
सदैव ऐ सूर्यमुखी सु-आनना॥53॥

अपूर्व ऐसे दिन थे मदीय भी।
अतीव मैं भी तुझ सी प्रफुल्ल थी।
विलोकती थी जब हो विनोदिता।
मुकुन्द के मंजु-मुखारविन्द को॥54॥

परन्तु मेरे अब वे न वार हैं।
न पूर्व की सी वह है प्रफुल्लता।
तथैव मैं हूँ मलिना यथैव तू।
विभावरी में बनती मलीन है॥55॥

निशान्त में तू प्रिय स्वीय कान्त से।
पुन: सदा है मिलती प्रफुल्ल हो।
परन्तु होगी न व्यतीत ऐ प्रिये।
मदीय घोरा रजनी-वियोग की॥56॥

नृलोक में है वह भाग्य-शालिनी।
सुखी बने जो विपदावसान में।
अभागिनी है वह विश्व में बड़ी।
न अन्त होवे जिसकी विपत्ति का॥57॥

मालिनी छन्द

कुवलय-कुल में से तो अभी तू कढ़ा है।
बहु-विकसित प्यारे-पुष्प में भी रमा है।
अलि अब मत जा तू कुंज में मालती की।
सुन मुझ अकुलाती ऊबती की व्यथायें॥58॥

यह समझ प्रसूनों पास में आज आई।
क्षिति-तल पर हैं ए मुर्ति-उत्फुल्लता की।
पर सुखित करेंगे ए मुझे आह! कैसे।
जब विविध दुखों में मग्न होते स्वयं हैं॥59॥

कतिपय-कुसुमों को म्लान होते विलोका।
कतिपय बहु कीटों के पड़े पेच में हैं।
मुख पर कितने हैं वायु की धौल खाते।
कतिपय-सुमनों की पंखड़ी भू पड़ी है॥60॥