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प्रेम-विस्मृति / हिमांशु पाण्डेय

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तुम बैठे रहते हो मेरे पास
और टकटकी लगाए देखते रहते हो मुझे,
अपने अधर किसलय के एक निःशब्द
संक्षिप्त कम्पन मात्र से मौन कर देते हो मुझे
और अपने लघु कोमल स्पर्श मात्र से
मेरा बाह्यांतर कर लेते हो अपने अधीन

हृदय की सारी संवेदनाएं और जीवन की संपूर्ण गति
तब तुम और मैं,
हमारे हृदय के स्पंदन, हमारी चेतना और संसृति
हो जाते हैं एकमेक
विश्राम करने लगता है समय
और रह जाता है चहुँओर अकेला जाग्रत
एक शाश्वत विरल,तरल प्रेम

टांक लेना चाहता हूँ मैं इसे पृष्ठ पर
चित्रित कर लेना चाहता हूँ
एक अलभ्य आस्था - प्रेम विस्मृति
पर खो गयी है तूलिका
अपर्याप्त है पृष्ठ ।

इस अलौकिक दृश्य को अचित्रित ही रहने दो -
मेरे चित्रकार !