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प्रेम कविता-2 / एड्रिएन सिसिल रिच

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चूँकि हम युवा नहीं हैं,
एक-दूसरे से न मिल पाने के वर्षों खोए समय को
पूरना होगा हफ्तों में । इस पर भी सिर्फ़
समय का यह अजीब मोड़
बतलाता है मुझे हम युवा नहीं हैं ।

क्या जब मैं बीस की थी सुबह की सड़कों पर कभी घूमती थी,
मेरा शरीर परम आनन्द से सराबोर ?
क्या कभी मैंने ऊपर से झाँक कर देखा था किसी खिड़की से शहर को
भविष्य के लिए सुनते हुए
जैसे कि मैं सुन रही हूं यहां तन्त्रियाँ तुम्हारी घण्टी पर लगीं ?

और तुम मेरी ओर बढ़ती हो उसी गति से ।
तुम्हारी आँखें नित्य हैं,
शुरूआती ग्रीष्म की नीली आँखोंवाली घास की हरी कौंध
हरा-नीला जंगली क्रेस<ref>एक तरह की वनस्पति</ref> वसन्त से धुला ।
बीसवें वर्ष में, हाँ : हमने सोचा था हम सदा रहेंगे ।
पैंतालिसवें वर्ष में, मैं जानना चाहती हूँ, यहाँ तक कि हमारी सीमाएँ ।
मैं तुम्हें छूती हूँ जानते हुए कि हम कल नहीं जन्मेंगे
और किसी तरह, हम में एक-दूसरे की ज़िन्दगी में काम आएँगे
और कहीं, हम में से हर एक को मदद करनी होगी
दूसरे की मृत्यु के वरण में।

शब्दार्थ
<references/>