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प्रेम का आतंक / मनोज श्रीवास्तव

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प्रेम का आतंक

वह इनमें से
किसी को भी
प्यार कर सकता है,
पर, उसे डर है कि
ये उन्हें अंकल न कह दें

वह इनके इर्दगिर्द मंडराता है,
अपने पहचानवालों से मुंह चुराकर
इनकी गोलबंदी के बीच से
सांस थामे
सिर झुकाए
और खांसते हुए
निकल जाता है

फिर, पछताता है
उनसे आँख न मिला पाने की
विवशता पर,
पछताता ही जाता है--
कि काश!
वह मूंछ की सफ़ेद बालों को
मुस्कराहटों में छिपाकर
गरदन को अकड़ाकर
छोकरे की तरह कंधे उचकाकर
झटके से सिर के
चुनिंदा बाल उड़ाकर
प्रेम-संदेश पहुंचा ही देता

पर, वह कांप उठता है
घाम-बतास से सूखे
गाँछ की टूटती टहनी की तरह,
प्रेम के ख्याल-भर से
आतंकित हो उठाता है
कि आखिर,
किस चिड़िया का नाम है 'प्रेम'

घर में इस्तरी की तरह
टी०वी० से चिपकी हुई
उसकी पत्नी है
जो उसकी मरती भावनाओं को
प्रेस कर देती है,
मोबाइल की तरह
'इश्क दी गली बिच नो एंट्री'
बजते-बजते हुए
उसके बच्चे भी हैं
बेहद लाड़-दुलार के काबिल,
पर, वह डरता है
उनमें से किसी को भी
पुचकारने से
और वह घुस जाता है
रसोईं में ज़रूरी काम निपटाने,
जबकि पत्नी ड्राइंग रूम में
विहंस-विहंस बतियाती जाती है
एकता कपूर की दुश्चरित्र पात्रों से
और वह महीनों से
एक भी प्रेम-कविता
न लिख पाने के गम में
औंधे मुंह कब रात को
सुबह में तब्दील कर देता है,
उसे कुछ भी आभास नहीं होता

पर उसे आस है कि
अगर वह न कर सका तो
इनमें से कभी कोई
प्रेम प्रस्तावित ज़रूर करेगी
और तब उसका मर्द होना
सुफल-सार्थक हो जाएगा.