भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्रेम की एक शाश्‍वत कविता / प्रदीप जिलवाने

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:08, 17 मई 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रदीप जिलवाने |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> मैंने उम्मीद …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैंने उम्मीद को
कनेर के फूल की तरह
खिलते और झरते हुए देखा है

मैंने ख़ामोशी को
बीज की तरह धरती में उतरते
और फिर लहलहाते हुए देखा है

मैंने रोशनी को
तिल-तिल की मोहलत माँगते
और अँधेरे के आगे गिड़गिड़ाते हुए देखा है

पहाड़ों को
मंद-मंद मुस्कराते और
जंगल को सुहाग-गीत गाते हुए देखा है

मैंने प्रार्थना के पवित्र शब्दों को
प्रेम की एक शाश्‍वत कविता में
तब्दील होते हुए देखा है