भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

फ़िर से बना लिया खु़द को कोरा काग़ज़ मैंने / शमशाद इलाही अंसारी

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:07, 31 अगस्त 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शमशाद इलाही अंसारी |संग्रह= }} {{KKCatGhazal}} <poem> फ़िर से ब...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

फ़िर से बना लिया खु़द को कोरा काग़ज़ मैंने
ले अब अपने जज़्बात के नए रंग भर दे मुझमें|

जो गुज़र गया है, कुहासा था घना कोहरा था
छू के मेरी जात को कोई बिजली-सी भर दे मुझमें।

जाने क्यूँ प्यासी है सदियों से इस जिस्म की धरती
कोई काली घटा बनके समंदर-सा भर दे मुझमें।

"शम्स" जब से इज़हारे मुहब्बत किया है उसने
जमा हुआ लहू सरगोशियाँ-सी करे है मुझमें।



रचनाकाल: 09.08.2002