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फ़ेसबुक से रुष्ट एक कवि / शमशाद इलाही अंसारी

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लेखक मित्र उमराव सिंह जाटव के नाम एक कविता

ओ मेरे प्रिय मित्र
तुम रुष्ट हुए,
भर कर क्रोध
लौट गए वापस अपनी दुनिया में
और कंपित कर गए मुझे ।

पीछे छोड़ गए अनगिनत प्रश्नों की
गर्भवती
सुलगती एक चिता ।

तुम क्यों चाहते थे
भरमार चिक्कलसें
बेदम वाह-वाही

क्यों हसरतें थी तुममें
कि कोई दे तवज़्ज़ों
और ठूँस ठूँस कर भर दे
तुम्हारे फ़ूलदानों में
वो काग़ज़ी- बेजान फ़ूल
जिन्हे तुम खुद भी तो कभी नहीं देखते ।

लेकिन क्यों थी यह तुम्हे अपेक्षा
कि लोग भाँड़ बन जायें
और लगें तुम्हे पूजने
ठीक वो ही पूजा-पाठ
जिसका विरोध करते करते
अब साँस फ़ूलने लगती है तुम्हारी ।

ओ मेरे प्रिय मित्र
भीड़ कभी प्रेम नहीं करती
भीड़ तमाशा होती है
भीड का अपना गति-विज्ञान है
उसे हर रोज़ जरुरत होती है एक तमाशे की
तुम भी
और मैं भी तो
हिस्सा थे, इस तमाशे का ।

पर तुम स्वयं इसके विरोधी थे
फ़िर क्यों पोषित की वह जिज्ञासा
कि एक तमाशा तुम्हारा अपना भी हो

ओ मेरे प्रिय मित्र
काश तुम ये जान पाते
कि बिना तमाशा बने भी
तमाशे को देखा जा सकता है
इसका लुत्फ़ लिया जा सकता है
किसी को प्रेम किया जा सकता है
सिर्फ़ प्रेम
विनिमय विहीन प्रेम ।

ओ मेरे प्रिय मित्र
काश तुम यह जान पाते
कि एक हाथ से भीड़ नहीं थामी जाती
एक मुठ्ठी में एक हाथ ही भर सकता है
तकिये के बगल में रखे
बहुत हैं एक
-दो चमेली के फ़ूल ही
जिनके सहारे काटी जा सकती है
रात, अंधेरा और उसकी त्रासदी ।


रचनाकाल : 20.05.2010