भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

फागुन आ गया क्या?-2 / प्रमोद कुमार तिवारी

Kavita Kosh से
Gayatri Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:20, 29 अगस्त 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रमोद कुमार तिवारी |अनुवादक= |सं...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुई वह पहली छुअन
जाने क्यों पागल किये जा रही
पंडीज्जी के कहे पर
कांपती उंगलियों में लिया था तुमने मेरा हाथ
जब पूरी देह सिमट गयी थी
हाथों में
मंत्र की जगह गूंज रही थीं धड़कनें

परबस मन बार-बार चाहे है
मोजराए आम की गझीन गंध में
भीगती रहूं सारी रात
रोम-रोम में बसा लूँ
सरसों का पीलापन
नहीं-नहीं,रोम-रोम के कपाट बंद कर लूं
करीब भी न आने पाए कोयल की कराल कूक
तुम्हारे बारे में तो भूल के भी न सोचूं
कि पूरे सात माह हो जाएंगे तुम्हें देखे
इस एकादशी को
उबटन की गंध ऐसे तो नहीं चढ़ती थी माथे पर
जाने क्या हो गया है हवाओं को
लगता है
उड़ा के ले जाएंगी कहीं
धूप की भी तबियत ठीक नहीं
कभी सताती है कभी मनाती है.

घूम फिरकर सब क्यों बातें करते हैं तुम्हारी
किसके सवांग नहीं जाते बाहर
पड़ा रहने दो खेत को रेहन
नहीं चाहिए मुझे चांपाकल
ढो लूंगी सिवान के कुंए से पानी.
चिरई चुरगुन से भी गए बीते हैं हम
भाग का लेखा थोड़े न बदल देगा परदेशी सेठ

ये क्या हो रहा मुझ करमजली को
फागुन
आ गया क्या?