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फिर उसी धुन में उसी ध्यान में आ जाता हूँ / ज़िया-उल-मुस्तफ़ा तुर्क

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फिर उसी धुन में उसी ध्यान में आ जाता हूँ
तुझे मिलाता हूँ तो औसान में आ जाता हूँ

बे-निशाँ हो रहूँ जब तक तिरी आवाज़ के साथ
फिर किसी लफ़्ज़ सा इम्कान में आ जाता हूँ

जिस्म से जेसे तअल्लुक़ नहीं रहता कोई
बेश-तर दीदा-ए-हैरान में आ जाता हूँ

शाख़-ए-गुल से जो हवा हाथ मिलाती है कहीं
इसी अस्ना इसी दौरान में आ जाता हूँ

तू किसी सुब्ह सी आँगन में उतर आती है
मैं किसी धूप सा दालान में आ जाता हूँ