भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बड़ा आदमी / सपन सारन

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:07, 13 सितम्बर 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= सपन सारन |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita}}...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं और मेरा आत्म-विश्वास
आख़िरी सांसें भर रहे हैं
मैं अस्सी का हो चला
और उसे तो उम्र का आभास ही नहीं ।

वो हंस रहा है
मैं दर्द में हूँ
वो सीधा खड़ा है
मैं बिस्तर में हूँ ।

आँखें मुझ-सी ही पाई हैं...
वो, जो सीने को चीर देती हैं
वो, जो सपनों की उड़ानों में विलीन हैं
वो, जो सच की मूर्खता में मग्न हैं ।

एक पल के लिए मैं मोहित हो चला
फिर सम्भला ।
स्मृतियों के जाल को परे कर
मेरी भौंहें सवाल कर रही हैं
— उसके चमकते माथे पर शिकन तक नहीं
मैं क्रोध के कोहरे में खो रहा हूँ
— उसे परवाह ही नहीं ।

एक हंसी हंस रहा है वो — टेढ़ी
गुलाबी गालों पर, गुलाबी हंसी — टेढ़ी।
मेरे प्रश्न से न भय उठा
न लज्जा
न भाव
न देह
निष्ठुर !

एकाएक मुझे याद आया
वो भी तो जा रहा है आज
जीत की ख़ुशी में मैं मुस्काया
— भीतर ही भीतर —
मैं संवेदनशील हूँ
उस तक का ख़याल हूँ रखता
वो निर्लज्ज, मुझी पर है हंसता !

सारा जीवन बिता दिया
इसकी सेवा-पानी में
घरवालों की गाली सही
भरपूर जवानी में
किसलिए ?
ताकि ये जीए
जीए जैसे मन हो इसका ।
ऐसे तो मेरे बाबा ने भी नहीं जीने दिया मुझे
इसके बहकावे में आ
घर तक मैंने छोड़ दिया
निकल चला, कठोर कर्म करने
सृष्टि-विजय
सृष्टि-परिवर्तन
सृष्टि-नवनिर्माण
अन्तहीन ख़्वाहिशें...!

वो बोला — न करना कभी सवाल
दोस्ती का हाथ समझे
मैं थामे रहा मशाल
कई बार गिरा
कई बार लुढ़का
चोट लगी, खून बहा
पेड़ों ने भी ताने कसे
फल जब-जब नहीं मिला ।

आज अब हम हैं यहाँ
अस्पताल में — यूँ आमने-सामने
उलाहनों से मेरा मन भर आया
आँख फेरने को बोली काया
मैं और मेरा आत्म-विश्वास
थे एक-दूजे के दुश्मन ख़ास।

वो घड़ी अब आ चली
मैंने अन्तिम वाली श्वास भरी
आँख में उसके आँसू तो आया
पर हंसी रही फिर भी वहीं

हार गया !
अलविदा का मैंने हाथ उठाया
उसने लपक कर थाम लिया
कुछ झुका, फिर कहा —

“जब तुमने मुझे था जीवन दिया
तो कहा था ऐसा एक दिन आएगा
कहा था देह दण्ड तब पाएगा
कहा था तुमने —
‘वादा करो — रहोगे उस दिन भी अटल, कहो !
मुस्काते, निर्भीत, निश्छल, निडर ।
तभी रह पाऊँगा मैं जीवित
तभी बनूँगा मैं अमर ।’

आज पूरा किया वो वादा मैंने
मुस्का रहा हूँ मैं देखो
हो जाओ अमर तुम अब, चलो !”

मेरी साँस छूट गई
उड़ता चला गया मैं कहीं
आसमानों की विवादित वन्दना में
वो देखता रहा मुझे,
डबडबाई निश्छल आँखों से
अपने विश्वासघाती साथी को
जो छोड़ गया जग में उसको
मुस्काता हुआ ।

लोग कहते हैं — कोई बड़ा आदमी मरा है
लोग कहते हैं — वाह ! क्या जीवन जीया है
लोग कहते हैं — ये हमेशा हमारे साथ रहेगा
लोग कहते हैं — मैं और मेरा आत्म-विश्वास अमर है ।