भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बड़ा रंग लाया हैमेरा ग़ज़ल लिखना भी / कबीर शुक्ला
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:32, 27 फ़रवरी 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कबीर शुक्ला |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
बड़ा रंग लाया है आज मेरा ग़ज़ल लिखना भी।
महबूब के चेहरे को गुलाब कवँल लिखना भी।
आरिंद को गुलिस्ताँ अब्सारों को दरिया लिखना,
उसके गेसू-ए-शबगूँ को घना बादल लिखना भी।
शक्ल-ए-ज़मील को जेबाई-ए-महबाब लिखना,
उसे ख़ुदा ख़ुद को उसका कायल लिखना भी।
सादिक गुलबदन खुशरवे-शीरीदहना लिखना,
ख़ुद ग़फ़लत-शिआर उसे अव्वल लिखना भी।
गोशा-गोशा मेरे आशियाँ का महका जाता है,
ख़ुश्बू-ए-जिस्मे-नाजनीं को संदल लिखना भी।
इब्तिशाम अता करता है मेरे अह्दे-हिज़्र को,
दिले-बेक़रार को खुशियों का महल लिखना भी।
नादाँ नाकर्दकार को सुकूने-कल्ब देता है 'कबीर' ,
ख़्वाबे-परीशाँ को बारहाँ मुकम्मल लिखना भी।