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बदन को वज्द तिरे बे-हिसाब-ओ-हद आए / सय्यद काशिफ़ रज़ा

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बदन को वज्द तिरे बे-हिसाब-ओ-हद आए
मिरी रसाई में गर तेरा जज़्र-ओ-मद आए

मैं इक दफ़ा तुझे चुमूँ तो तेरे ख़्वाबों में
किसी भी मर्द का चेहरा न ता-अबद आए

मैं तेग़-ए-इश्क़ से गर तौल दूँ बदन तेरा
तिरी नज़र में न मीज़ान-ए-नेक-ओ-बद आए

जो तेरे ख़्वाब में आ जाए बर्शगाल मिरा
मिरे लिए न तिरे लब पे रद्द-ओ-क़द आए

हर एक साल मनाऊँ मैं जश्न-ए-लम्स उस का
जो दस्तरस में मिरी वो दराज़-क़द आए

बहुत सजेगी ये पोशाक-ए-हर्फ़ ऐ ‘काशिफ़’
जो शाइरी में मिरी उस के ख़ाल-ओ-ख़द आए