भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बदरा क्यों गरजे घनघोर सजनवाँ अइलें नाही मोर / महेन्द्र मिश्र

Kavita Kosh से
Mani Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 05:39, 22 अक्टूबर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=महेन्द्र मिश्र |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बदरा क्यों गरजे घनघोर सजनवाँ अइलें नाही मोर।
कोयल कुहुके ऐ सखी, करे पपीहरा शोर।
झींगुर की झनकार है, बन में बोले मोर।
दम-दम दमकन लगे विजुरिया जियरा डरपन लागे मोर।
रैन अंधेरी होत है, गरजत है घनघोर।
बूँद पड़त अँगना सखी तरसत नैना मोर।
हरदम चाह लगी मिलने की अब तो चढ़ी जवानी जोर।
द्विज महेन्दर कइसे रहूँ करूँ कवन तदबीर।
कर काँपे लेखनी डिगे बहे नयन से नीर।
हरदम जपों नाम के माला मिल जा मोहन राज किशोर