भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बन्द रखी है ज़ुबान हमने लिफ़ाफ़ों की तरह। / रंजीता सिंह फ़लक

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:52, 8 मई 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रंजीता सिंह फ़लक |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बन्द रखी है ज़ुबान हमने लिफ़ाफ़ों की तरह ।
बोलती हैं मगर आँखें किताबों की तरह ।

वो तो बस देख के मुझको चला जाता है मगर
सुर्ख़ हो जाती हूँ मैं जैसे गुलाबों की तरह ।

उससे मिलना भी कहाँ मुमकिन हो पाता है मेरा
पेश आती हैं हज़ार रस्में हिजाबों की तरह ।

किसने देखा है मोहब्बत में सुकूँ का कोई पल
हरेक लम्हा है यहाँ जैसे अजाबों की तरह ।

ज़िन्दगी इतना उलझा दिया है तूने मुझे
बीती जाती है मेरी उम्र हिसाबों की तरह ।

उसको माना है ख़ुदा उसकी अकीदत की है
इश्क़ मेरा है जैसे की नमाजों की तरह ।